बाॅयकाट बाॅलीवूड की ये है असली वजह | Real reason to #boycottbollywood

January 26, 2023 , 0 Comments

18 मई 1912 को रीलीज हुई 'संत पुंडलिक' भारत की पहली फूल लेंथ फीचर फिल्म थी। यह दादासाहेब थोर्ने द्वारा निर्देशित एक नाटक की रिकार्डिंग थी, इसलिए दादासाहेब फालके की राजा हरिशचंद्र को भारत की पहली फिल्म होने का बहुमान मिला। दोनों ही फिल्मों का मूल कथा तत्व सनातन संस्कृति से संबंधित था।

सन् 1931 में आलम आरा रीलीज हुई, जो भारत की पहली बोलती फिल्म थी। इस फिल्म के निर्देशक अर्देशर ईरानी थे, जिनके बाप दादा मूलतः पर्सिया (ईरान) से थे। आलम आरा नाम से ही जाहिर हैं कि फिल्म का कथानक इस्लामिक पृष्ठभूमि वाला था। फिल्म में सात गीत थे।

दर असल इन गीतों में प्रयुक्त भाषा ही वो पहला अवसर था जहां से जाने या अनजाने में बॉलीवुड के इस्लामिकरण के बीज बोए गए। आलम आरा के एकाध अपवाद गीत को छोड़कर सभी गीतों में ख़लिश उर्दू का उपयोग किया गया।

आगे चलकर फिल्म उद्योग में ऐसे गीतकार आए जिन्होंने बजाए हिंदी के उर्दू भाषा को ही प्राधान्यता दी। इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया गया परंतु यह आश्चर्यजनक था कि एक हिंदु नायक जिसने कभी उर्दू न सीखी हो वो भी 'जाने वफा, जाने तमन्ना' जैसे शब्दों का उपयोग अपनी प्रेमिका के लिए करता है। गीतों के शब्दों में बडी चालाकी (?) से 'मौला, खुदा, अल्लाह' जैसे शब्दों को प्रभु या भगवान की जगह घुसा दिया गया।

"आजा आजा मैं हूं प्यार तेरा, अल्लाह अल्लाह इंकार तेरा"

'आ लौट के आजा मेरे मित' या ' हरी भरी वसुंधरा पे नीला नीला ये गगन' जैसे बेहतरीन हिंदी से सजे गीत बॉलीवुड में उर्दू भाषी शायरों के वर्चस्व के कारण कम लिखे गए।

बाद के समय में बॉलीवुडी गीतों के शब्दों में कट्टरता से हिंदुओं को नीचा दिखाने का प्रयास किया गया। यह सर्वविदित है कि इस्लाम मे हिंदुओं को काफिर घोषित किया गया है, क्योंकि हम राम को श्रद्धेय मानते हैं। बॉलीवुड के गीतकारों ने बार बार गीतों के शब्दों में काफिर शब्द का उपयोग करके हिंदुओं को निशाना बनाया है।

फिल्म तीसरी मंजिल में शम्मी कपूर हेलन की आंखो को 'काफिर' कहते हैं।

ओ हसीना जुल्फों वाली जाने जहाँ, ढुंढती है काफिर आंखे किसका निशां

फिल्म सोहनी महिवाल के एक गीत में सीधे सीधे देव प्रतिमाओं की पुजा करने वालों को काफिर संबोधित किया गया है।

'दिल करता है इस मिट्टी से तेरा जैसा बुत एक बनाऊं

सजदे उसको कर करके मैं आज मुसलमां से काफिर हो जाऊं"

हाल ही के वर्षों में कुछ इस्लामिक गीतों के शब्दों पर भी ध्यान दिया जाए।

फिल्म 'ईश्क' के गीत में शायर राहत इंदौरी लिखता हैं,' दिल का भरोसा क्या है, दिल तो काफिर हैं।'

फराह खान के पति शिरीष कुंदर की फिल्म तीस मार खां के गीत वल्लाह है वल्लाह में काफिरों को झुकने और बंदगी करने के लिए आवाहन किया गया है।

"काफिर झुक जाए दार पे, फरमाए मुझसे तू ही है बंदगी"(3.16)



फिल्म हमारी अधुरी कहानी में श्रेया घोषाल एक गीत में हिंदूओं को नसीहत देती हैं, "वरना मिलता कहां हम काफिरों को खुदा"। (1.52)

शिरीष कुंदर की फिल्म जोकर के एक गीत में तो हिंदुओं की नियत को ही काफिर घोषित कर दिया गया है।



एक संगीतमय फिल्म में एक युवा की संगीत स्टार बनने की लालसा को बेहतरीन रुप से दर्शाया गया है। फिल्म में दर्शाया गया है कि जब नायक असफलता से निराश हो जाता है तो वो इस्लामी इबादतगाह में जाकर क़व्वाली गाता है तो उसे नयी रोशनी मिलती है। फिल्म का नैरेटिव इतना मजबूत है कि कोई यह नहीं सोचता कि क्या एक काफिर का इबादतगाह की जगह पर एक काफिर का प्रवेश मुमकिन है?

संगीत भारतीय फिल्मों की आत्मा हैं और संगीत की आत्मा शब्द है। इस तरह शुरूआत चाहे अनजाने हुई हो पर बाद में मजे लेकर हिंदी फिल्मों की आत्मा का धर्म परिवर्तन किया गया।

फिर शुरू हुआ फिल्म की कहानी का इस्लामिकरण करने का प्रयास।

कुछ अपवादों को छोड दें तो बॉलीवुडी फिल्मों में इस्लामिकरण का श्रेय जाता है सर्वकालिन श्रेष्ठ कहानीकार जोडी सलीम जावेद को। 1970 से 1982 तक सलीम जावेद ने भारतीय सिनेमा के इतिहास की कुछ बहुत ही बेहतरीन फिल्मों की कथा पटकथा लिखी।

कहते हैं कि फिल्में समाज का दर्पण होती हैं। देश की राजकीय व्यवस्था से परेशान आम जनता की लाचारी को सलीम जावेद ने फिल्मों में एंग्री यंग मॅन संकल्पना वाली पटकथाओं में बखूबी उकेरा। अमिताभ बच्चन इसी संकल्पना की देन हैं। परंतु दोनों लेखकों ने एक काली सच्चाई दर्शकों से छुपा ली।

दर असल इस लेखक जोडी के समांतर कालखंड में ही मुंबई पर हाजी मस्तान, युसुफ पटेल, करीम लाला, दाऊद इब्राहिम और वरद राजन मुदलियार जैसे खूंखार माफिया सरगनाओं का राज था। एक वरद राजन को छोड़कर सब सलीम जावेद के हम मज़हब थे। सलीम जावेद ने हमें तत्कालीन व्यवस्था के विरुद्ध एंग्री यंग मॅन अमिताभ बच्चन जैसा नायक तो दिया पर हाजी मस्तान और दाऊद जैसे खलनायकों को क्यों अपनी कहानीयों के माध्यम से उजागर नहीं किया? हाजी मस्तान के जीवन पर बनी फिल्म दीवार में क्यों दोनों लेखकों ने हाजी मस्तान का धर्म परिवर्तन कर दिया? क्या ये उनके मजहब के काले पक्ष को छिपाने का षडयंत्र नहीं था? इसके बजाय दोनों ने फिल्म में अपने मजहब का महिमामंडन किया। नायक विजय हिंदु देवी देवताओं को भला बुरा कहता है, परंतु 786 के अंको वाले बैच में ईमान रखता है। वाह...!

दोनों ने तकरीबन 24 फिल्मों में कथा पटकथा लिखी। परंतु एक भी फिल्म में किसी मुस्लिम को खलनायक नहीं दिखाया। उल्टा उनकी कथाओं में मुस्लिम कभी शोले के इमाम चाचा होते हैं या शान के अब्दुल।

सलीम जावेद ने व्यवस्थित ढंग से बॉलीवुड में इस्लाम का महिमामंडन किया, हिंदू धर्म को नीचा और हल्का दिखाकर। सलीम जावेद के बाद इस काम को आगे उनकी आनेवाली पीढी ने अभिनय के दम पर बखूबी आगे बढाया।

सलमान खान, शाहरूख खान, आमिर खान, सैफ अली खान....

ये वो पीढ़ी थी, जिसके इस्लामिक माफियाओं के साथ संबंध हमेशा संदेह के घेरे में रहे। खानों की फिल्मों में माफिया की फंडिंग अकसर चर्चा का विषय रही हैं। माफिया के भय या पैसों के कारण, फिल्म की कथा वस्तु में हिंदु धर्म को नीचा दिखाने वाले कंटेंट की मात्रा में अभूतपूर्व वृद्धि आई।

सलमान खान तो खुले आम मुंबई ब्लास्ट के आरोपी याकुब मेमण के समर्थन में उतर आया था। सलमान खान ने अरिजीत सिंह जैसे कलाकारों के करीयर को खत्म करके भारत के दुश्मन पाकिस्तान के कलाकारों को बॉलीवुड में लाने का भरसक प्रयत्न किया था।

शाहरूख खान ने फराह खान के साथ मिलकर 'मै हूँ ना' जैसी फिल्म के द्वारा हिंदू को आतंकवादी दिखाकर, पाकिस्तानी आतंकवादीयों को निर्दोष करार दिया। माय नॅम आज खान के द्वारा भारत में मुसलमानों के कथित उत्पीडन को दर्शाने का प्रयत्न किया।

आमिर खान ने फिल्म पीके और सत्यमेव जयते जैसे टीवी कार्यक्रमों के माध्यम से हिंदू धर्म का बेहद मजाक उडाया।

ख़्वाजा अहमद अब्बास से लेकर अनुष्का शर्मा, स्वरा भास्कर, प्रकाश राज जैसे वामपंथी झुकाव वाले हिंदुओं ने भी बॉलीवुड के इस्लामिकरण में पूरा योगदान दिया है। बॉलीवुड में एक ऐसा भी समय आया जब इस्लामी गुंडों को नायक बनाकर प्रस्तुत किया गया और आतंकवादीयों को येनकेन निर्दोष साबित करके आतंकवाद को न्यायिक ठहराया गया।

एक और नाम के बिना यह उत्तर पुरा नही हो सकता। हालांकि मैं उस इंसान का नाम नहीं लेना चाहता था, पर प्रामाणिकता के तहत ये जरुरी है।

वास्तव में सलीम जावेद से पहले एक और शख्स बॉलीवुड में था जो हिंदू और हिंदू धर्म से बेहद नफरत करता था। उसका नाम युसुफ खान था। उसके हिंदु नाम के अवतार में वो अभिनय की युनिवर्सिटी था। परंतु युसुफ खान के रुप में बहुत ही हल्का और घटिया इंसान था। (दिलीप कुमार के प्रशंसक नीचे दिए लिंक को क्लीक करें) युसुफ खान वो पहला शख्स था जिसने बॉलीवुड में मज़हब खतरे में हैं का बिगुल बजाया था। फिल्मों में वो हिंदू के पात्र को अवश्य निभाता परंतु कभी हिंदू देवी देवताओं के सामने सर न झुकाता। उसकी इस कट्टरता के लिए चरित्र अभिनेता ओम प्रकाश ने उसे बराबर लताडा था। हालांकि बाद में ओम प्रकाश ने अपना रूख नरम कर लिया था।

देव - सुरैया के प्रेम संबंध को भी युसुफ ने नजर लगाई थी। अपने भाई नासिर खान की बेवा बेगम पारा के साथ जो युसुफ खान ने किया हैं वो इसे सबसे घटिया इंसान साबित करता है।

किसी को याद हैं कि मखमली आवाज के मालिक तलत मेहमूद ने रफी साब की तरह कभी कोई भक्ति गीत गाया हो?

इस तरह पहली बोलती फिल्म आलम आरा से लेकर आज तक ऐसा कोई समय नही रहा जब बॉलीवुड में हिंदुओं को नीचा दिखा कर इस्लाम का महिमामंडन न किया गया हो।

आजकल तो इसका व्याप छोटे मोटे विज्ञापनों तक फैल गया है। 'तनिष्क' और 'सर्फ' जैसे विवादित विज्ञापन सभी को याद ही होंगे।

अलबत्त, आज दक्षिण भारतीय फिल्मों ने जिस तरह से बॉलीवुड के अस्तित्व को चुनौती दी है, उससे बॉलीवुड को हिलाकर रख दिया है। आम हिंदी भाषी दर्शक धीरे धीरे बॉलीवुड से दूर जा रहा है। 'द कश्मीर फाइल्स' की रीलीज के साथ दर्शकों का एक बडा वर्ग बॉलीवुड के तुष्टीकरण से अवगत हो गया है। 

Amol Kote

Some say he’s half man half fish, others say he’s more of a seventy/thirty split. Either way he’s a fishy bastard.

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